Hardasipur - Hardasipur
эта статья не цитировать Любые источники.апрель 2013) (Узнайте, как и когда удалить этот шаблон сообщения) ( |
Hardasipur это деревня в Яунпурский район, Уттар-Прадеш, Индия.
Село находится в 35 км к северу от г. Варанаси. Очень старый и знаменитый храм Маа Кали находится в этой деревне. Эта деревня находится под Чандвак Тхана Керакат техсил. Почтовый индекс 222129
Эта Яунпурский район статья о местоположении заглушка. Вы можете помочь Википедии расширяя это. |
हरदासीपुर- दक्षिणेश्वरी महाकाली
«कोई दुआ असर नहीं करती, जब तक वो हम पर नजर नहीं करती, हम उसकी खबर रखे न रखे, वो कभी हमें बेखबर नहीं करती।»
कुछ ऐसा ही संबंध है हमारा और हमारी कुल देवी दक्षिण मुखी मां काली का। नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है ऐसे गांव पर स्थापित माँ काली का मंदिर अपने दर्शनाभिलाषी शोभायमान रहता है। वैसे तो वर्ष भर यहाँ भक्तों का मेला रहता है पर्व और श्रावण मास अलग ही है इस दरबार में। बनारस से 30 किलोमीटर उत्तर दिशा में जिला के आदि-गोमती के पावन तट से 2 किलोमीटर की दूरी हरदासीपुर में स्थित ये मंदिर लगभग लगभग 8 शताब्दियों से इस क्षेत्र (डोभी) की शोभा को गुंजायमान कर हमें है। क्षेत्र की कुल देवी के रूप में स्थापित यह मंदिर अलौकिक की कथाओं और भक्तों की मनोकामनाओं का स्वरूप है साथ ही साथ जाने कितने के कुशल जीवन की साक्षी हैं।
एक नज़र इतिहास पर-:
कुछ किम्बदन्तियों के अनुसार काशी क्षेत्र पर तकरीबन 150 ई.पू. भर (राजभर) समुदाय का राज्य था तत्कालीन समय मे इसे नाम से जाना जाता था। इस वंश के राजाओं ने बावड़ियों एवम मंदिरों के निर्माण पर विशेष बल दिया; किन्तु मगध साम्राज्य के उदय के पश्चात इसे मगध क्षेत्र के लिया जाता है जो कि हर्षवर्धन के काल में पुनः इनको राज अधिकार प्राप्त और इनका शासन निरंतर चलता रहा। किन्तु लगभग वर्ष 1000 ईसवी में काशीक्षेत्र से सम्बद्ध क्षेत्र (वर्तमान में डोभी, जिला- जौनपुर) में रघुवंशी क्षत्रियों का आगमन हुआ। बनारस के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह तत्कालीन अयोध्या के से करने का फैसला किया, जो कि अयोध्या राजपाठ छोड़ सन्यास धारण कर माँ चरणों मे आये और काशी के नियार क्षेत्र स्थापित कर तपस्या करने लगें। विवाह के उपरांत भेंट स्वरूप काशीराज ने काशी के कुछ क्षेत्र (वर्तमान में डोभी व कटेहर) की भूमि प्रदान की जिसमे रघुवंशी क्षत्रिय हुए। उसके बाद वत्यगोत्री, दुर्गवंश, और व्यास क्षत्रिय इस जनपद में आये। तत्कालीन समय मे भी भरों और सोइरसों का प्रभुत्व इस क्षेत्र पर था। क्षत्रियों की आबादी बढ़ने के साथ-साथ भरों और क्षत्रियों में संघर्ष बढ़ने लगा। लगभग वर्ष 1090 के दौरान कन्नौज से गहरवार क्षत्रियों के ये संघर्ष युद्ध मे तब्दील होने लगा गहरवारों ने विंध्याचल पर प्रभुत्व स्थापित कर अपने रुचि अनुरूप मंदिरों के निर्माण एवं देना आरम्भ किया। तकरीबन 1100 ईसवी उत्तरार्द्ध में गहरवारों की कृपादृष्टि मंनदेव (वर्तमान में जफराबाद) और योनपुर (वर्तमान में जौनपुर) पर पड़ी और यहाँ भी समृद्धि साथ धार्मिक क्रियाकलापों विकास आरम्भ हुआ। डोभी में पहले से रह रहे रघुवंशी एवम एवम क्षत्रियों के संबंध स्थापित हुए, बढ़ती मित्रता और रिश्तेदारी क्षेत्र वृक्ष को जन्म दिया। बाह्य आक्रान्ताओं के भय से गहरवारों का मुख्य ध्यान मंदिर और के विकास में था जिसके फलस्वरूप रघुवंशी कुल देवी माँ जगदम्बा एकरूप माँ काली निर्माण की हवा क्षेत्र में फैलने लगी के राजा विजय अगुवानी का निर्माण लगभग 1200 ईसवी में पूर्ण हुआ। उधर कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा मनदेव यानी वर्तमान आक्रमण स्थलों को नष्ट करने का दुष्कृत्य आरम्भ हो चुका था। मुस्लिम आक्रान्ताओं से परेशान होकर गहरवारों ने अपनी राजधानी विजयपुर स्थान्तरित कर ली, फलस्वरूप विंध्य क्षेत्र काशीनरेश के अधीन हो गया। मुस्लिम आक्रान्ताओं की नज़र मंदिर पर थी किन्तु का राजा बनारस से संबंध होने के नाते मंदिर को सुरक्षित रखा गया; किन्तु कुछ शताब्दी पश्चात मुस्लिम आक्रान्ता शाहजहाँ द्वारा लगभग 1632 ईसवी में काशी विश्वनाथ मंदिर को पुनः ढहाने के लिए पारित किया गया किन्तु सेना में प्रबल प्रतिरोध के कारण मंदिर को नष्ट नही किया जा सका; किन्तु काशी क्षेत्र के 63 प्रमुख मंदिर को ध्वस्त कर दिया के पुनः निर्माण पर रोक लगा जिसमें से एक मंदिर यह भी था। वर्षों से चली आ रही परम्परा के अनुसार माता वार्षिक समय निकट आ रहा था ऐसे में वासियों के मन मे भय रूढ़िवादी प्रश्नों का उठना स्वाभाविक था। पूजा के समय को निकट देखते हुए लोगो ने की प्रतिमा (मिट्टी से निर्मित आकृति) को मंदिर के सामने स्थित बरगद के विशालकाय स्थापित करपूजन करने का निर्णय किया। पूजन के पश्चात लगभग 250 वर्षों तक माता की मूर्ति वृक्ष के नीचे विराजमान रही। लगभग 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन पूजन छूट कर माता के हाथ पर मूर्ति। उसी समय स्थानीय जमींदार और कारोबारी अमरदेव सिंह तीर्थयात्रा पर निकले थे। इधर मूर्ति का हाथ टूटा उधर तीर्थ गए अमरदेव हाथ मे दर्द शुरू हो गया। दर्द असहनीय होने के कारण तीर्थयात्रा छोड़ उन्हें रास्ते से घर आना पड़ा। घर वापस आये तो सुना कि माता गयी है उसी समय उनके हाथ का दर्द समाप्त हो गया। स्व. सिंह ने कलकत्ता से माँ काली नई मूर्ति लाकर एक की भांति माँ के मंदिर निर्माण का आरम्भ करवाये शताब्दियों बाद पुनः दक्षिण मुखी काली की स्थापना का कार्य उनके हाथों सम्पन्न हुआ। तकरीबन 100 वर्षो पश्चात वर्ष 2006 में अमरदेव सिंह के सुपौत्र शम्भू नारायण द्वारा मंदिर की जर्जर अवस्था को देखते भव्य मंदिर निर्माण का खाका तैयार किया गया निर्माण कार्य पुनः आरम्भ हुआ जिसमें सहयोग उनके भांजे जितेंद्र सिंह (लखनऊ) और गाँव के निवासी कारोबारी शांति देवी पत्नी शिवपूजन सिंह (सिंगापुर), स्व. उदयभान सिंह, रामप्यारे सिंह, का रहा। साथ ही साथ क्षेत्र एवम् गांव के अन्य लोगो जिनमें राजेन्द्र प्रजापति, स्व. सूबेदार सिंह, स्व. हरिनाम, स्व. सियाराम प्रजापति, स्व. रामधनी प्रजापति (सिंगापुर), स्व. सुरेंद्र सिंह, रविन्द्र सिंह, लालबली प्रजापति, स्व. रामराज पांडेय, सुनील पांडेय, आदित्य पांडेय का सामाजिक और शारीरिक सहयोग भी सराहनीय रहा। वर्तमान में मंदिर के प्रमुख संरक्षक (सक्रिय सदस्य) के रूप में वर्तमान पुजारी जयबिन्द पांडेय (डब्बू), शम्भु नारायण सिंह, रामेश्वर प्रसाद सिंह, सुशील सिंह, नरेंद्र सिंह, जितेंद्र सिंह (लखनऊ), निखिल सिंह, विनोद सिंह, इंदु, उमेश सिंह, नवनीत सिंह, नितेश, नवीन, राहुल, प्रदीप, सूरज, महेंद्र प्रजापति, अंकुर सिंह, विशाल, दीपक, रुद्रपति पांडेय, राधेश्याम पांडेय, रविशंकर पांडेय, विजय शंकर पाण्डेय, आकाश, अखिलेश पांडेय, डाक्टर अच्युत पांडेय, गुलाब, रामवृक्ष सिंह, श्रीभान, गिरिजा पांडेय, हरिप्रसाद, धीरज, त्रिपुरारी, राकेश, विपिन, विनय, मनोज एवम् हरदासीपुर कीर्तन मण्डली और ग्राम एवम् क्षेत्र के सदस्य सम्मिलित हैं।
अंकुर सिंह एवम् निखिल सिंह रघुवंशी